Monday, April 5, 2010

बेटी की बर्बादी ने याद दिलाया बिखराव का दर्द

कुमार प्रवीण
जोधपुर। अश्लील फिल्मों से ब्लेकमेल की जो घटना कल अजमेर में उजागर हुई है उसने सबको अंदर तक डरा कर रख दिया है। उन घरों में यह चिंता ज्यादा बढ़ी है जिनके यहां जवां बेटियां है और जहां पति पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। ऐसे घरों में आज एक बार फिर संयुक्त परिवारों से हुआ बिखराव उन्हें गहरा दर्द पहुंचा रहा है।
अजमेर के पट्टूकला क्षेत्र के जिस परिवार की बेटी आज सब कुछ गंवा कर दुख के समंदर में डूबी है पता नहीं उस परिवार की क्या मजबूरी रही होगी कि जिस कारण उन्हें अपने घर के बड़े बुजुर्गों को छोड़कर इस तरह किराए का मकान लेकर अकेले रहना पड़ा, लेकिन ऐसे परिवार बहुतेरे हैं जो जरा सी बात पर अपने झूठे अहंकार और केवल मौज मस्ती करने व एकांत पाने के लिहाज से ही अपने घर के बड़े बुजुर्गों को छोड़कर झूठी शान के मोह में जवां बेटियों को लेकर अकेले रह रहे हैं। यह घटना ऐसे पति पत्नी के लिए निश्चित तौर पर करारा सबक लेकर आई है।
यदि अजमेर का यह परिवार भी संयुक्त रूप से रह रहा होता तो तय है उनकी बेटी की आज जो गत हुई है वो नहीं हुई होती। अजमेर का यह मामला तो उजागर हो गया इसलिए चर्चा भी हो रही है अन्यथा पता नहीं ऐसे कितने परिवार है जहां पति पत्नी के नौकरी पर जाने के बाद जवां हुई बेटियों को किन-किन राक्षसों की हवस का शिकार बनना पड़ रहा होगा? भगवान ही जाने।
व्यस्तता के इस दौर में वैसे ही समय किसी के पास है नहीं और नौकरियों के सिलसिले में जहां पति पत्नी को घंटों अपने घरों से बाहर रहना पड़ रहा है वहां दिन भर बेटियां यदि खुद ही आवारागर्दी पर उतारू हो रही होगी....तो क्या पता ? क्योंकि जवां होते बेटे बेटियों पर निगरानी रखने...उनके दोस्त कैसे हैं......बच्चे कहां जाते हैं.....क्या करते हैं.......यह सब कुछ जांचने जानने का रिवाज तो हम उसी दिन पीछे छोड़ आए जब हम अपने बुजुर्ग मां बाप को उनके हाल पर ही अकेला छोड़ कर रवाना हुए थे। उन्हें इसलिए ही तो छोड़ा था क्योंकि वे इस संदर्भ की पूछताछ कुछ ज्यादा करते थे। विशेष कर बहुओं से ....। पराए घर से आई ये बहुए आजादी पसंद थी....उन्हें इस तरह की टोकाटोकी अपने अस्तित्व पर हमला लगती थी...इसलिए पहले तो एक सोची समझी साजिश के तहत रोज किच किच कर इन्होंने घर का माहौल बिगाड़ा.....और बाद में जब बात बढ़ी तो सामान उठाकर रवाना हो गई। अब जब ये बहूएं मां बन गई हैं... इनकी बेटियां जवां हो गई हैं...ये नौकरियां भी करने लगी हैं.....तो बेटियों की चिंता सता रही है। और जब तब अजमेर के पटृटूकला में जो हुआ वो खबरें उजागर होती है तो इनका मन भीतर से कांप उठता है। वाजिब भी है। जिन बच्चों को तमाम तरह की मुसीबतें उठाकर पाल पोस कर बड़ा किया हो बचपने में कोई उन्हें यूं बहला फुसला कर उनकी जिंदगी बर्बाद कर दे भला कौन बर्दाश्त करेगा। इसीलिए अब ठोकर खाए परिवारों को अपने बुजुर्गो की टोकाटोकी के मतलब समझ आ रहे हैं। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मन में मैल अपने ही आया था....वे तो बडेÞ हैँ....उन्हें कुछ याद नहीं वे तो इंतजार में आंखे गड़ाए बैठे हैं.....लौट जाओ घर.....और हो जाओ निश्चिंत....वहां आपकी बेटी को बहलाने की हिम्मत ना तो किसी पडौसी की हो सकती है और ना ही आपकी बेटी ही आवारागर्दी करने की हिमाकत कर सकती है। क्योंकि उनकी आंखों में ईश्वर ने कुछ ताकत ही ऐसी दी है कि उन्हें हर गलती पलक झपकते ही नजर आ ही जाती है।
अजमेर के पट्टूकला में भी बेटी की बर्बादी का हिसाब चुकाने की पहल उसके नाना नानी ने ही की। इस घटना ने एक बार फिर से इस यह कहने की पुरजोर आवश्यकता प्रतिपादित की है कि हमें अपने बच्चों पर निगरानी जरूर रखनी चाहिए। विशेषकर जब बच्चे जवां हो तो उनकी हर हरकत पर नजरें रहनी ही चाहिए। अजमेर के पट्टूकला में भी जो कुछ हुआ वो हुआ तो एकदम से लेकिन उसको बच्चों ने दोहराया बड़े ही इत्मीनान से। यदि मां - बाप एक बार भी गंभीरता से अपनी बेटी की मनोस्थिति उसके हाव भाव को पढ लेते तो तय है आज वो सब कुछ नहीं होता जिनके लिए उनका पूरा परिवार ही नहीं सब जानने वाले भी आंसू बहा रहे हैं।

Saturday, April 3, 2010

तो अब बदलनी पड़ेगी धर्मपत्नी की परिभाषा

कुमार प्रवीण
जोधपुर। सुप्रीम कोर्ट की ओर से दी गई उस व्यवस्था के तहत जिसमें कहा गया है कि विवाह कि ए बिना एक महिला और पुरु ष के साथ-साथ रहने को प्रथम दृष्टतया अपराध नहीं माना जा सकता है ने अभिभावकों की नींद उड़ा दी है। इसको लेकर शुरू हुई चर्चा थमने का नाम ले रही है। हर कोई इससे निकलने वाले परिणामों को लेकर ना केवल चिंतित हैं बल्कि इससे कइयों का चैन ही उड़ गया है। यही नहीं घरों में आदर्शों को जीने वाले अभिभावकों की हालत खस्ता है और उन्हें अब यह नहीं सूझ रहा कि वे अपने बच्चों को संस्कारों का पाठ कहां से और कैसे पढाए? क्योंकि इस मुद्दे पर आकर तो तमाम संस्कारों, नियमों, रीति रिवाजों और सीख की धज्जियां ही उड़ जाती है। लेकिन यह सब कुछ इतना जल्दी नहीं हुआ है। आज जो लोग इस तरह के रिश्तों को लेकर चिंता जता रहे हैं वे उस समय कहां थे जब विभिन्न टीवी चैनलों में प्रसारित होने वाले धारावाहिकों की नायिकाएं कपड़ों की तरह से अपने पति बदल रही थी। तब तो हर घर इस प्रकार के धारावाहिक ना केवल बड़ी ही रूचि से देख रहा था बल्कि उस तरह के माहौल के पनपने की बाट भी जो रहा था। कुछेक लोगों ने इस प्रकार के सीरियलों के प्रसारण पर रोक की मांग उठाई थी, लेकिन तब अधिकांश घरों को यह ठीक नहीं लगा था, और कई महिलाओं की भुकुटियां तन गई थी। इसी कारण इस प्रकार के सीरियलों के विरोध में उठी आवाज ने उनकी टीआरपी बढ़ाने का ही काम किया। अब जब यह सब कुछ कानूनी जामा पहन कर हर घर में होने की आशंकाएं प्रबल हो गई है तो इस पर मंथन हो रहा है। अभी भी हमारे घरों में बैठकर जो सीरियल हम देख रहे हैं वो कोई हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं है, लेकिन किसी में यह हिम्मत नहीं है वो अपने घरों में इस तरह के धारावाहिक देखने से अपने परिजनों को रोक सके। बच्चों को मना कर सके। तो रेत हाथ से फिसल चुकी है.....अब बहस से भी कोई प्रभावी नतीजा निकलने वाला नहीं है। इसीलिए ही अभिभावकों की यह चिंता लाजिमी है। क्योंकि पश्चिमी देशों में जहां इस तरह की व्यवस्था है वहां तलाक का प्रतिशत पचपन प्रतिशत से भी ज्यादा है। यदि यहां भी यही सब कुछ होने लगा तो वैसी ही भयावह स्थिति बनते देर नहीं लगेगी। आज नहीं तो यह तय है कल युवा पीढी हमें इसके लिए कोसेगी ही। क्योंकि व्यस्तता के इस दौर में जब आदमी को अपनी जीजिविषा चलाने के लिए ही इतना संघर्ष करना पड़ रहा है ऐसे में वो रोज-रोज की घरेलू किच-किच शायद ही सहन कर पाए। कोई स्त्री आज किसी के साथ कल किसी और के साथ यही हाल पुरूषों का भी रहेगा जब तक जी रहा साथ फिर दूसरी की तलाश...यह क्रम समाज में नए अपराधों को भी जन्म देगा इसमे कोई संदेह नहीं। इसीलिए भारतीय समाज क ा लोक मन इस तरह के नैतिक मूल्यों के उल्लंघन क ो स्वीक ार क रने के लिए फिलहाल तो तैयार नहीं है। यह सही है कि आर्थिक उदारवाद क ो अंगीक ार क रने के बाद लिविंग-टुगेदर क ी सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता क्योंकि सेवा के नए-नए क्षेत्रों के उभरने से स्त्री और पुरु षों के बीच आर्थिक आत्मनिर्भरता, समानता, स्वतंत्रता, साथ-साथ क ाम क रने, विलंब से शादी करने तथा सामाजिक दायित्वों से मुक्ति पाने क ा दृष्टिक ोण लोगोें क ो लिव-इन रिलेशनशिप में बंधने की ओर आकर्षित कर सकता है, लेकिन सह जीवन क ी क ोई चाहे कि तनी भी वक ालत क रे, विवाह पूर्व साथ रहना और स्वच्छन्द व्यवहार हमारे पारम्परिक समाज क ो स्वीक ार्य नहीं है। इसीलिए ही सुप्रीम कोर्ट की इस तरह की व्यवस्था के बाद कई लोग अपने को हारा हुआ ही महसुस कर रहे हैं। क्योंकि यह व्यवस्था उस समय आई है जब हमारा समाज संक्र मण से गुजर रहा है। यह सब जानते ही हैं कि इन दिनों देश की सनातन मूल्य व्यवस्था क ा उदार देशों के भौतिक मूल्यों से सीधा टक राव हो रहा है। उदारीकृ त समाजों से आने वाली वैश्विक परिवर्तन क ी तेज आंधी भारतीय संस्कृ ति और संस्थाओं पर सीधे प्रहार क र रही है। इस बार यह हवा कुछ ज्यादा ही तेज चली है। इसने संस्कृति की मजबूत दीवारों को भी हिला दिया है। अपने यहां विवाह और परिवार दोनों ही संस्थाएं समाज क ी रीढ़ है। हमारी यह धारणा प्रबल है कि सांस्कृ तिक रू प से नियंत्रित और अनुशासित वैवाहिक संबंधों के माध्यम से ही परिवार अस्तित्व में आता है। इन यौन संबंधों क ा संस्थागत रू प ही विवाह क हलाता है। दरअसल विवाह और परिवार एक ही सामाजिक यथार्थ के दो पक्ष हैं। परिवार के बिना मानव जाति और संस्कृ ति क ा संरक्षण और विवाह के बिना परिवार क ा गठन व संरक्षण संभव नहीं। हमारे इस अनुभव को पश्चिमी देशों ने भी गहरे से महसूस किया है और ऐसे उदाहरण ढेरो हैं जब विदेशी युवतियों व युवकों ने भारतीयों से विवाह रचाया और वे अब सुख शांति से रह रहे हैं। आज एक वर्ग भले ही खुद क ो प्रगतिवादी मानते हुए शीर्ष अदालत क ी टिप्पणी के साथ खड़ा हो गया है। उसक ा मत है कि विवाह पूर्व साथ-साथ रहना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने क ी स्वतंत्रता के अधिक ार क ा ही एक रू प है। जबकि ऐसे मानने वाले भी बहुतेरे हैं कि लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता मिलने पर आपराधिक दंड संहिता क ी धारा-125 के तहत दी गई धर्मपत्नी क ी परिभाषा ही बदल जाएगी

Sunday, March 14, 2010

महिलाएं मंदिर जाएगी, अकेली भी

भगवा कपड़े पहन कर साधुओं की भूमिका निभा रहे कुछ बाबाओं के चेहरे पर से अब जब नकाब उतरा है तो पूरा देश सकते में हैं। जिन घरो की बहू बेटियां निरन्तर मंदिर और आश्रम आती जाती रही है उन्हें भी संदिग्ध नजरों से देखा जाने लगा है। घरों में यह सवाल जवाब मांग रहा है कि कौनसे मंदिर और आश्रम में जाएं और कौनसे में नहीं। किस बाबा से वे बात करें और किससे नहीं। कौनसा बाबा वास्तव में भगवान का सच्चा सेवक है और कौनसा नहीं। जवाब किसी से देते नहीं बन रहा, लेकिन बड़ी सख्या में लोग दोषी ऐसे बाबाओं के लिए सीधे तौर पर मृत्यु दंड की ही मांग कर रहे हैं वहीं साधुओं का एक तबका दबे स्वरों में इसे साजिश करार दे रहा है। इस मामले में उनकी साधुओं को तो क्लीन चिट हैं लेकिन महिलाओं को वे कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उन्हें यह कहने में शर्म महसूस नहीं हो रही कि इन मामलों में सामने आई युवतियां कोई दूध पीती बच्चियां नहीं है, सब समझदार हैं और अच्छी पढी लिखी हैं। तो वे कैसे किसी के जाल में फंस सकती हैं। यह विडम्बना ही है कि ऐसा कहने वालों के खुद की बच्ची कभी ऐसे रैकेट में नहीं फंसी है....भगवान फंसाए भी नहीं।
इस तरह का तर्क देने वाले सच क्या है ये वे अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन साधु हैं इसीलिए साधुओं का साथ देने के अपने धर्म से विमुख नहीं हो रहे। यह कैसा धर्म है? जिसमें सही और गलत को समझने की ही कोई जहमत नहीं उठाना चाहता। बाबा ने पूरा सैक्स रैकेट खड़ा कर दिया उसका कोई दोष नहीं? सैक्स रैकेट में जो युवतियां शामिल हुई वे अपराधी है? वाह भई वाह? बाबा बहकावे में आकर एक कॉलेजी छात्रा को भगा ले गया। छात्रा पर दोष मढा जा रहा है कि वो भागी ही क्यों ? एक बाबा किसी हीरोइन के साथ बेडरूम में नजर आता है...हीरोइन यह कहकर खिला रही है कि मुझे कोई एतराज नहीं मैं तो बाबा की सेवा कर रही थी। आस्था का यह कैसा अंधेरा? बाबाओं के ऐसे वक्तव्यों के बाद महिलाओं की त्यौंरियां चढ़ी हुई है जिसमें कुछेक बाबाओं ने कहा है किमहिलाओं को अकेले मंदिर जाना ही नहीं चाहिए। यह बयान बाहर आने के बाद अब मामला गर्मा गया है। कुछेक बाबाओं का कहना है कि आखिर महिलाएं अकेली मंदिर जाती ही क्यों हैं? इनका कहना है कि महिलाएं जब भी मंदिर जाए तो साथ में पति, पिता या भाई होना चाहिए। आखिर इस तरह के वक्तव्य जारी करने के पीछे इन बाबाओं का इशारा किस ओर है? यह पूरी तौर पर फिलहाल स्पष्ट नहीं है।
क्या मंदिरों में भगवान की सेवा करने वालों के रूप में वास्तव में बदमाशों का कब्जा हो गया है ? या भगवा वेश में घुमने वाले अधिकांश लोग अब गुंडे, व्याभिचारी और अत्याचार करने वाले हैं? मंदिर और आश्रम क्या वास्तव में अब सुरक्षित स्थान नहीं रहे? आखिर सच है क्या? बाबा बता नहीं रहे। कहीं बाबा ऐसा कह कर यह कहने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैँ कि कुछेक महिलाएं जो बदमाश प्रवृत्ति की हैं अपने स्वार्थ को साधने के लिए पर पुरूषों के साथ मिलकर मंदिर व आश्रम का माहौल खराब कर रही हैं। ऐसी ही महिलाएं साधुओं को भी पहले बहका रही है फिर उनके कारनामों को जग जाहिर कर रही है? या बदमाश व आवारा किस्म की महिलाओं को देखकर साधुओं की साधना टूट रही हैं और वे स्वयं को रोक नहीं पा रहे ? कुछ भी हो दोष अकेले महिलाओं पर क्यों मढा जा रहा है? महिलाओं के मंदिर में अकेले प्रवेश नहीं जाने संबंधी वक्तव्यों के गर्भ में क्या है वे बाबा ही जाने जो ऐसा कह रहे हैं, लेकिन आम लोग विशेषकर महिलाएं बाबाओं के इस तरह के बयानों के बाद गुस्से में हैं। इतना कुछ हो जाने के बाद भी केवल यह कह कर रह जाना कि महिलाओं को अकेले मंदिर नहीं जाना चाहिए फिलहाल उनकी क्या किसी की भी समझ में नहीं आ रहा। और उस स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं जब महिलाएं सत्ता में तैंतीस फीसदी आरक्षण संबंधी बिल राज्य सभा में पास हो जाने पर खुशियां मना रही हैं।
पैंतीस वर्षीय श्रीमती मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि आज बाबा कह रहे हैं कि महिलाएं अकेले मंदिर नहीं जाएं कल संसद में बैठे लोग कहेंगे कि आखिर यहां महिलाओं का काम क्या ? हो सकता है कि महिलाओं के बाद में घर से बाहर निकलने में उनके परिजन ही फिर से पाबंदी लगाने लग जाए। यदि कोई सोच भी रहा है तो यह उसकी भूल है।
बाबाओं ने भोली भाली बच्चियों को बहकाकर उनसे उलटा काम करवाया, इसमें कोई संदेह नहीं। कानून ऐसे बाबाओं को सजा देगा और महिलाएं भी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। शर्मा का कहना है कि इस तरह के मामले सामने आने के बाद महिलाएं चुप बैठने वाली नहीं है....वे अकेले ही मंदिर जाएगी और आस्था के समंदर में यदि उन्हें कहीं कोई काला नाग नजर आया तो वे उनका फन कुचल देगी। मंदिरों में तथाकथित बाबाओं की घुसपैठ पर भले ही धमार्वलंबी चुपचाप बैठ कर तमाशा देखते रहे, लेकिन महिलाएं अब चुप नहीं बैठेगी। वे भगवा वेश में बदमाशों को पहचान को दंड देने के लिए तैयार है। सच की इस लड़ाई में जो साथ उसका स्वागत है।

Wednesday, February 3, 2010

यह तरीका तो ठीक नहीं

कुमार प्रवीण
जोधपुर। बुधवार को शहर की सड़कों पर भीख मांगने निकले जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के शिक्षकों की मंशा तो इस तरह का घृणित कृत्य कर सरकार को नीचा दिखाने की ही थी, लेकिन इससे सरकार की सेहत पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा हां शिक्षकों की गरिमा को जरूर इन्होंने पलीता लगा दिया। भीख मांगना कोई अच्छा काम है क्या? कुलपति प्रो. नवीन माथुर ने भी बाद में इनसे यही पूछा।
यह सही है कि महंगाई के इस दौर में इन अंशकालीन शिक्षकों को जो कुछ मिल रहा है वो कम है....इससे इनका पूरा नहीं पड़ता। इनकी मांग है कि मानदेय बढ़ना चाहिए। उनकी इस मांग से संभवतया सरकार भी सरोकार रखती है....और हमको भी पूरी हमदर्दी है... सरकार मानदेय बढ़ाना चाहती है, लेकिन बढ़ा नहीं पा रही...। इस कारण ये अंशकालीन शिक्षक परेशान हैं। इनकी परेशानी लाजिमी है, लेकिन अपनी इस परेशानी की ओर इन्होंने सरकार का ध्यान खींचने के लिए कथित गांधीगीरी का नारा लगाते हुए जिस तरह से आज सड़कों पर खिलखिला कर भीख मांगी उससे शहर में कोई खास अच्छा संदेश नहीं गया। क्योंकि भीख कमजोर लोग मांगते हैं और शिक्षक कभी कमजोर नहीं हो सकता यह जग जानता है। फिर इन्होंने जिस तरह से भीख मांगी भी उससे भी इनके प्रति किसी की हमदर्दी नहीं जुड़ी...लोगों ने पैसे देकर यही कहा कि नाटक कर रहे हैं ये सब....। सही भी है यह पूरा घटनाक्रम किसी बेहूदे और शर्मसार करने वाले नाटक से कम नजर नहीं आया। क्योंकि ऐसे में जब बच्चे तनाव में हैं....अभिभावक परेशान हैं.....और सब मिलकर इस प्रयास में हैं कि किस तरह से बच्चों में पल रहे तनाव को कम करके उनके मन में पल रही हताशा को दूर किया जाए उस समय में यदि चंद शिक्षक ही हाथ में कटोरा लेकर सड़कों पर भीख मांगने के लिए जमा हो जाए तो हमारे बच्चों में क्या संदेश जाएगा? भीख मांगने आए इन शिक्षकों को यह सोचना चाहिए था। शिक्षकों से समाज यही अपेक्षा करता है कि वो बच्चों में संघर्ष की प्रवृत्ति पैदा करे, युवाओं को जुझारू बनाए और उन्हें यह बताए कि हताशा और निराशा से कभी अधिकारों की लड़ाई नहीं जीती जाती। अब तक तो शिक्षकों ने यही किया है, पता नहीं भीख मांगने आए इन शिक्षकों को संघर्ष की कायराना और हताशा भरी यह राह किसने सुझाई ? क्योंकि हमने यही सीखा है कि मांगन मरण समान है...मत कोई मांगों भीख, मांगन से मरना भला...यही सद्गुरू की सीख।
कुलपति प्रो. नवीन माथुर को भी इसका अहसास अच्छे से है...वे जानते हैं कि भीख मांगना कोई अच्छा काम नहीं है और न ही यह किसी हक की लड़ाई में आंदोलन का हथियार बनना चाहिए...इसलिए उन्होंने भीख मांग रहे अंशकालीन शिक्षकों को फटकार भी लगाई, लेकिन जिन लोगों ने भीख दी वे सब यह नहीं समझ पाए... और खास बात यह कि जिनके पास पावर है वे भी भीख देने से नहीं चूके...हालांकि उन्होंने भीख इन शिक्षकों के दबाव में आकर ही दी पर भीख देकर कहीं न कहीं वे भी सवालों के घेरे में तो आ ही गए। आज परेशान कौन नहीं है....महंगाई की मार ने सबको बुरी तरह से पछाड़ दी हुई है...आज अंशकालीन शिक्षक भीख मांगने निकले..कल कोई और निकलेगा...परसो कोई और.....कल्पना करो यदि यह सब होने लगा तो फिर कैसे होगा विकास।

Tuesday, January 12, 2010

सड़कों पर हुडदंग मचा रही है बोतल

कुमार प्रवीण
जोधपुर। शहर पुलिस के लिए यह स्थिति और ज्यादा सजग, सतर्क और कठोर हो जाने की है। जिस तरह से कल एक होटल से शराब के नशे में धुत्त किन्हीं लोगों ने एक वेटर का अपहरण कर लिया और कल ही शराब पीकर फितुर मचा रहे युवकों ने टोके जाने पर इस तरह से स्कार्पियो दौड़ाई जैसे उन पर किसी फिल्म का स्टंट दृश्य फिल्माया जा रहा हो। किसी का कोई खौफ नहीं। यह तो गनीमत रही कि इस स्कार्पियों की चपेट में कोई आया नहीं वरना परिवार वाले घर में उसकी बाट ही जोहते रहते। इधर शराब पीकर एक भिखारी द्वारा अपने ही साथी का मर्डर करने की आई खबर ने यह साबित कर दिया है कि भले ही मुख्यमंत्री के आदेशों के बाद रात आठ बजे बाद शराब दुकानें बंद अवश्य हो जाती है, लेकिन उसके बाद सड़कों पर शराबियों की पौ बारह हो जाती है। रात के अंधेरे में सड़कों पर इस कदर शराबियों के बुलंद हुए हौंसलों ने शहर की नींद उड़ा दी है, क्योंकि यह सभी घटनाएं आधी रात बाद की नहीं है। सब कुछ आठ और दस बजे के बीच ही हुआ है। इस समय तक तो अधिकांश शहर अपने घर से बाहर ही रहता है। अधिकांश बच्चे इसी समय ही ट्यूशन पढ़ कर घर लौटते हैं और बड़ों को भी अपनों से मिलने का यही समय सही लगता है। अब जिस तरह से शराबियों द्वारा गुंडागर्दी किए जाने की यह खबरें साया हुई है लोग डरने लगे हैं कि कहीं घर आते समय बीच राह में उनसे अगर शराबी टकरा गए तो...क्या होगा ? उनकी उम्मीदें शहर पुलिस के जवानों से ही है, क्योंकि हंगामा या मारपीट होने पर बीच बचाव पर यहां कम ही लोग मदद के लिए आते है...यह कई बार दिखा है। पुलिस को सर्दी की परवाह नहीं करते हुए सड़कों पर चौकस निगाहों से शराबियोें के खिलाफ कठौर रवैया अपनाना ही होगा। इनके प्रति नरमाई निर्दोषों पर भारी पड़ सकती है। क्योंकि सड़कों पर उधम मचाने वाले शराबियों को नहीं रोका गया तो इनका आतंक घरों में भी हंगामा मचाने लगेगा। हो सकता है ये दुकानें भी लूट ले। गौरतलब है कि पहले भी शराबी इसी तरह ही सड़कों पर हुडदंग मचाने लगे थे तब पुलिस ने शाम के समय सड़कों पर इस कदर गश्त बिठा दी थी कि सब दुबक कर घरों में ही पीने लगे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से भले ही सर्दी के कारण ही पुलिस की ना तो शाम को प्रभावी गश्त है और ना ही रात को। इसी का फायदा यह शराबी उठा रहे हैं। शराब पीने वाले बहुत आसानी से ही पहचान लिए जाते हैं फिर पुलिस की नजरें तो पारखी है आखिर क्यों नहीं वो शराबियों को पकड़ पा रही। कल जो हुआ हो गया, लेकिन आज तो पुलिस को यह विश्वास नागरिकों में जगाना ही होगा कि हम हैं ना..बस आप तो सफर करो।

Monday, January 11, 2010

अभिभावक मानसिक दबाव में आ गए तो

जोधपुर। पिछले तीन दिनों से जिस तरह से स्कूली व कॉलेजी बच्चों के आत्महत्याएं की खबरें बाहर आ रही है उसने अभिभावकों की सांसे फूला दी है। हालांकि इन बच्चों ने आत्महत्या क्यों की यह अभी तक जांच का ही विषय है, लेकिन जहां ये बच्चे मरे हैं वहां चल रही चर्चाओं के स्वर सीधे तौर पर इसका कारण बच्चों के दिमाग पर मानसिक प्रेशर को मान रहे हैं और इसके लिए वे अभिभावकों को दोषी ठहराने से भी नहीं चुक रहे। हाल ही में रिलीज थ्री इडियट में जिस तरह से मानसिक दबाव को प्रभावी बनाकर प्रस्तुत किया गया है बताया जा रहा है कि उसके बाद से ही यह हौव्वा बनकर न केवल बच्चों का दिमाग खराब कर रहा है बल्कि अभिभावकों के मन में भी कहीं न कहीं आत्मग्लानि भर रहा है। बच्चों के कॅरियर के प्रति अभिभावकों की इच्छा अचानक इस कदर मानसिक दबाव का राक्षस बनकर उनके घरों की खुशियां छीन लेगी यह अहसास बहुतों को नहीं था, लेकिन थ्री इडियट ने इन मानसिक दबाव के राक्षस को खून पिलाकर इतना वहशी बना दिया है कि यह अभी तो केवल बच्चों को ही पहले बगावत करने और फिर दुनिया छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है। यदि सही ढंग से इसको नियंत्रित यानी परिभाषित नहीं किया गया तो हो सकता है कि आने वाले दिनों में यह राक्षस अभिभावकों भी मानसिक दबाव महसूस करवा कर आत्म हत्या के लिए प्रेरित कर दे। क्योंकि जिस रूप में आज महंगाई ने मुंह फैलाया है और सामाजिक व्यस्तताएं बढ़ी है उस दौर में सबसे ज्यादा मानसिक प्रेशर में यदि हैं तो वो अभिभावक ही है। बच्चे पर तो केवल उसके अपने भविष्य को संवारने का ही बोझ है और वो भी आधा अधूरा, क्योंकि जिस कॅरियर की वो पढाई कर रहा है उसका खर्चा उसके अभिभावक ही उठाते हैं। बच्चे को इसका बंदोबस्त नहीं करना पड़ता। जबकि माता पिता पर तो उसके भाई बहनों को भी पालने पढाने की जिम्मेदारी है। घर भी उन्हें ही चलाना है, क्योंकि बच्चा तो जब सहयोग करेगा तब करेगा। यही नहीं सामाजिक रीति रिवाजों का निर्वहन भी कोई बातों से नहीं होता इसके लिए भी पैसों की जरूरत होती है। यह पैसे भी मां बाप जैसे-तैसे करके इस रूप में जुटाते हैं कि बाहर पढाई कर रहे बच्चे की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़े, उसकी सुख सुविधाएं कम नहीं हो। जिस बच्चे में माता पिता डाक्टर या इंजीनियर बनना देखते हैं वे उसे घर की हर दिक्कतों से दूर रखते हैं। उस पर केवल पढ़ने की ही जिम्मेदारी रहती है और यदि कोई से मन पढता है तो तय किसी प्रकार का कोई मानसिक दबाव उसके पास नहीं फटक सकता।
जबकि मां बाप तो हर समय इस बात से भी डरे हुए रहते हैं कि कहीं उनका बच्चा गलत संगत में नहीं पड़ जाए। मानसिक दबाव का बोझ किसी बेटी के बाप से पूछो जिसकी बेटी रात को घर आने में जरा सी लेट हो गई हो। मां बाप की सांसे फूल जाती है। कोई बाप जो बेटी को उसके किसी बॉय फ्रेंड के साथ बात करते देखता है तो उस समय उस पर मानसिक दबाव कितना होता होगा, कोई कल्पना कर सकता है। पर मां बाप तो यह सब देखकर आत्म हत्या नहीं करते? ना ही बच्ची को मरने के लिए प्रेरित करते हैँ ? कोई बच्चा शराब पीकर घर आता है उस समय किसी बाप के दिल पर क्या गुजरती है यदि महसूस कर सकते है तो करके देखो मानसिक तनाव का अर्थ समझ में आ जाएगा। उस बाप की स्थिति देखो जिसका कोई बेटा या बेटी किसी हादसे में मर जाता है। शायद उस स्थिति में उसका मानसिक प्रेशर सबसे ऊंची स्थिति में होता होगा, लेकिन तब भी वो आत्महत्या करके अपने बीवी बच्चों को अकेला नहीं छोड़ता।
और अब बच्चों में यदि किसी मां बाप ने डाक्टर इंजीनियर के सपने देख लिए तो बच्चे पर मानसिक प्रेशर बन जाएगा क्योंकि वो कलाकार बनना चाहता है, पेंटर बनना चाहता है, फोटोग्राफर बनना चाहता है। कमाल है। कल को कोई बेटा या बेटी मवाली या मैडम एक्स बनने का सपना पाल लेगी....और मां बाप उसे रोकेंगे, कहेंगे बेटा कोई अच्छी नौकरी करो....तो वो मानसिक दबाव में आ जाएंगे। यह कैसा दौर है। समझ में नहीं आता। यह सब जानते हैं कि जिस बेटे या बेटी में मां बाप अपने सपने साकार होते देखना चाहते हैं उसे घरों में आए दिन उठने वाली परेशानियों से दूर रखते हैं। उस पर जरा सी भी आंच नहीं आने देते। उसे सारी सुविधाएं अपने सुख कम करके मुहैय्या करवाते हैं .....इतना सब कुछ होने के बाद भी यदि कोई महसुस करे कि उस पर अभिभावकों ने मानसिक दबाव डाल दिया है तो हमें अब मानसिक दबाव की परिभाषा को नए शब्दों में गढना होगा।
एक तरफ तो हम यह कहते नहीं थकते कि संघर्ष और लगन से किसी भी मंजिल को पाने के लिए बढ़ो सफलता आपके कदमों को चुमेगी दूसरी ओर पढाई की जिम्मेदारी को मानसिक दबाव बनाकर अभिभावकों पर बदनामी का ठीकरा फोड़ों। दोनों विरोधाभासी है जिसका तालमेल किसी भी रूप में संभव नहीं है, लेकिन थ्री इडियट ने जबरन यह तालमेल बिठाने की कोशिश की है। यह तालमेल बच्चों और अभिभावकों के बीच दूरी ही पैदा नहीं कर रहा बल्कि एक कमजोर और असहाय व मुसीबतों के सामने हथियार डालने वाली ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहा है जो यदि फल फूल गई तो देश में किसी का भी सुख चैन से जीना दुश्वार हो जाएगा। क्योंकि जो युवा अपने अभिभावकों के सपनों को हर सुविधा मिलने पर भी हासिल करने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं वे जरा सी कोई मुसीबत आई जैसे आतंकवादियों से सामना हो या देश पर दुश्मनों का हमला कैसे हमारी तो छोड़ों स्वयं की ही रक्षा कर पाएंगे, क्योंकि इस परिस्थिति में तो उन पर मानसिक दबाव हावी हो जाएगा और दुश्मन उनका कुछ बिगाड़े उससे पहले वे खुद ही अपने आपको मारकर दुनिया छोड़ जाएंगे। कल्पना करो कैसी स्थिति होगी।
लक्ष्य से पीछे हटना या स्वयं को मारकर कभी भी कोई मानसिक दबाव से भला जीता है। मानसिक दबाव कुछ है ही नहीं, यह तो जानबूझ कर हमको कमजोर करने की कोई साजिश है। गंभीरता से इसकी तह में जाओगे तो स्वत: इसकी परते उघड़ती नजर आएगी।

इडियट यानी इडियट

जोधपुर। आमिर खान भले ही अपने खिलाफ उठे विरोध के स्वरों को शांत करने के लिए यह कहे कि इडियट यानी जीनियस, लेकिन समझदार और बुद्धिमान लोग तो इडियट का मतलब इडियट ही निकालेंगे और है भी यही। बॉक्स आफिस पर धूम मचा रही इडियट फिल्म ने पहले से ही परेशान अभिभावकों की दिक्कतों को और बढ़ा दिया है। हर घर में इन दिनों इडियट की चर्चा है और बच्चे आमिर खान का उदाहरण पेश करके अब अभिभावकों को आंखे दिखाने लगे हैं। जिद करके वे अपने अभिभावकों को भी यह फिल्म दिखा आए हैं और अब घर में यही जद्दोजहद चल रही है कि यदि वे उन्हें फलता फूलता देखना चाहते हैं तो कॅरियर को लेकर उन पर कभी भी किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं बनाए। इस फिल्म में इंजीनियर बनने के दबाव में एक व्यक्ति को आत्महत्या करते दिखाया गया है तो कॉलेज के प्रोफेसर के बेटे की आत्महत्या को भी बार बार ऐसे ही संवादों में जोड़ा गया है। यही नहीं आमिर खान भी एक जगह कॅरियर के दबाव में होने वाली आत्महत्याओं का आंकड़ा गिनाकर भयावह और डरावनी स्थिति को ही पेश करते है। फिल्म का प्रस्तुतिकरण जरूर प्रभावी है इसलिए बच्चे इस संदेश को सहजता से ही न केवल समझ रहे हैं बल्कि अपनी जिंदगी में उतारने का संकल्प भी ले रहे हैं। वे इसको एक फिल्म मानने के लिए तैयार ही नहीं है...उन्हें लग रहा है कि यही जीवन की हकीकत है। बच्चों में इस फिल्म के प्रति जगे इस भाव के बाद अभिभावक स्वयं को न केवल ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं बल्कि उनमें अब डर भी जागा है कि कहीं यदि उनके बेटे या बेटी ने आत्महत्या कर ली तो...। इस रूप में इस फिल्म ने अधिकांश घरों की शांति में खलल पैदा कर दिया है। बच्चों को इस फिल्म में एक किरदार के अच्छा वाइल्ड फोटोग्राफर, आमिर खान के अच्छा इंजीनियर और एक को अच्छी नौकरी मिलते हुए तो नजर आता है, लेकिन उनकी आंखे यह देखने के बाद भी यह महसूस नहीं कर पा रही कि जिस तरह से आमिर खान एक शॉट में रैगिंग का जवाब सामने वाले को बिजली का करंट लगा कर देते हैं, क्या असल जिंदगी में यह संभव है ? क्या एक छात्र किसी को बिजली का करंट देकर घायल करने के बाद भी अपनी पढ़ाई को नियमित रूप से जारी रख सकता है? क्या उस पर उस स्थिति में पुलिस में मुकदमा नहीं चलता? लेकिन यह फिल्म है इसीलिए आमिर खान करंट देकर किसी को बुरी तरह से घायल करने के बाद भी सामान्य रूप से अपनी पढाई जारी रखते हैं। इसलिए सब कुछ सहज रूप से चलता रहता है।
इसी तरह फिल्म की कहानी में यह राज खुलता है कि आमिर खान ने इंजीनियरिंग की डिग्री अपने मालिक के बेटे के लिए हासिल की और आमिर खान की ओर से हासिल की गई डिग्री उनके मालिक का बेटा उपयोग में लेकर सरकार से करोडाÞें रूपए के ठेके उठा रहा है। क्या यह भी असल जिंदगी में संभव है ? यदि है भी तो क्या गंभीर अपराध नहीं है यह ? और यदि हां तो फिर थ्री इडियट का यह किरदार किस तरह से युवाओं का आदर्श बन सकता है ? फिल्म देखकर इसका गुणगान गाकर इसे जिंदगी में उतारने की जिद करने वाले युवाओं को यह भी समझना ही चाहिए।
इस फिल्म में रटने की आदत पर जो प्रहार किया गया है वो वाकई सराहनीय है और इसका प्रस्तुतिकरण भी असरकारक है, लेकिन जिस तरह से इस फिल्म के किरदार खुले आम शराब पीते हैं....शराब पीकर किसी लड़की के घर में घुस जाते हैं......वहां अपने कॉलेज के प्रिंसीपल को गालियां निकालते हैं और यही नहीं वो बिना बुलाए शादी समारोह में पहुंच कर मुफ्त का खाना भी खाते हैं। क्या वास्तविक जीवन में यह सब कुछ अपने समाज में स्वीकार्य है? या ऐसा करने वालों को कोई अपने यहां जीनियस मानता है? कॉलेज में शराब पीने की इजाजत कौनसे अभिभावक दे सकते हैं? क्या यह परमिशन उन्हें देनी चाहिए? या इसमें भी अभिभावकों को केवल इसीलिए ही चुप रहना चाहिए कि बेटे का मन है इसलिए उसे पीने दो? नहीं तो वो आत्म हत्या कर देगा। लेकिन इस फिल्म में यह सब करतुतें किरदार निभाते हैं। न उन्हें लज्जा आती है और न ही उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होती है क्योंकि यह फिल्म है इसलिए ही यह सब कुछ सहज लगता है। यकीन नहीं होता है एक बार इस तरह की हिम्मत करके देखो आपको सब अंतर समझ में आ जाएगा।
यह फिल्म अच्छी है इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन यह फिल्म हमारी जिंदगी का आइना है यह मानना पूरी तरह से गलत है युवाओं को यह समझ में आना चाहिए। इस फिल्म में जिस तरह से एक किरदार फ्लाइट की इमरजैंसी लेंडिंग करवा कर भाग जाता है क्या वास्तविक जिंदगी में ऐसा हो सकता है, बिल्कुल नहीं क्योंकि ऐसा करने वाले सीधे जेल जाते हैं घर नहीं। यही नहीं इस फिल्म में शादी के मंडप से जिस तरह से करीना कपूर को आमिर खान के दोस्त भगा ले जाते हैं क्या वास्तविक जीवन में ऐसा हो सकता है ? क्या हमारा समाज इसको मान्यता देता है ? क्या यह करीना का अपने पिता के प्रति अपराध नहीं है ? और जिस तरह से आमिर खान अपने द्वारा हासिल की गई इंजीनियरिंग की डिग्री को अपने मालिक के बेटे को देकर खुद आसमान की बुलंदिया हासिल कर लेते हैं कोई ऐसा उदाहरण असल जिंदगी में आपके आस पास हैं क्या, शायद दूर दूर तक नहीं है। यह सही है कि अभिभावकों को बच्चों पर अपनी इच्छाओं का कॅरियर नहीं थोपना चाहिए, लेकिन यह सब परिस्थिति पर निर्भर करता है। जिस तरह से इस फिल्म के एक किरदार को विदेश से वाइल्ड फोटोग्राफी करने का निमंत्रण मिल जाता है आप खुद अपने इर्दगिर्द देखकर बताओ ऐसे भाग्यशाली लोग कितने हैं ?
इस फिल्म को प्रभावी बनाने के लिए एक शॉट डिलेवरी का भी है। इस पूरे दृश्य पर डॉक्टरों की हंसी रोके नहीं रूकती। उनका मानना है कि यह संभव नहीं है, पर यह फिल्म है इसलिए डिलेवरी भी हो ही जाती है।
युवाओं को इन सब स्थितियों को समझ कर इस फिल्म के प्रभाव से बाहर निकलना चाहिए और मनोरंजन तक ही सीमित रहकर यह गहरे समझ लेना चाहिए कि इडियट इडियट ही होते हैं जीनियस नहीं। क्योंकि फिल्म में आमिर खान जिस तरह से मटरगश्ती करते हुए मैरिट हासिल कर लेते हैं क्या बिना पढे यह सब कुछ वास्तविक जीवन में हो सकता है। नहीं ना...तो मान गए ना कि थ्री इडियट हमारी जिंदगी का आइना नहीं केवल पैसा कमाने के लिए बनाई गई एक मनोरंजक फिल्म ही है। आमिर जीनियस है, लेकिन तुम उसको फॉलो बनकर इडियट मत बनो।